मस्ज़िद ने कहा,
इबादत करो
अल्लाह मिलेगा।
इबादत की,
खुदा न मिला,
पत्थरो से टकराना पड़ा।
गुरूद्वारे गए,
मत्थे टेका,
अरदास की
लंगर में बैठा,
पर, वहां से भी
खाली हाथ लौटना पड़ा।
मंदिरो में सर झुकाते-झुकाते
चढ़ावे में जो भी दिया
ईश्वर ने छुआ तक नहीं,
एक नजर देखा तक नहीं,
प्रसाद कुत्ते खा गये।
उमर गुजार दी
गिरजाघरों की चौखट पर।
मरियम की मासूम निगाहो में
आंसू के सफ़ेद फूल
खिले तो जरूर थे
पर दामन में जगह नहीं थी
उन्हें समेटने की
क्यूंकि दमन दाग-दाग था।
शूलों से तार-तार था
अपने- परायों के बोध ने
उसे गन्दा कर दिया था
आदमी का चेहरा
नंगा कर दिया था।
कभी अयोध्या,
कभी बंजर धरती पुकारती रही
हम तन से पुजारी तो जरूर रहे
पर मन लटका रहा
हमेशा किसी- न - किसी
खुनी सलीब पर।
प्रदीप्त ©
दृश्य Google wall से
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