Thursday, 25 May 2017

दाना-पानी







खि
ड़कियों के मुडेरो पर 
बांध रखे है,
मैंने दो प्याले।
एक में पानी 
दूसरे में निवाले !
और 
खिड़कियों को बंद कर 
काल्पनिक हवाओ में सराबोर 
टक-टकी  लगाये  बैठा 
उस खिड़कियों के मुडेरों को देखता 
कि 
कहीं से एक गौरैया आयेगी 
और पियेगी पानी 
तभी 
मेरे मन के पिंजरे  से 
दम घुटती हुई गौरैया बोली.................!
ऐसी अनाड़ी भी नहीं हूँ मै 
की अब फिर फंसू  तेरे फरेब में। 
पहले लौटाओ मेरे खेत खलिहान 
निर्वाह आसमान 
वो पुराने पेड़-डाले 
जो तुम सब ने
 मिल कर काट  डाले। 
अपनी हवस के फेर में 
और 
अब टक-टकी  लगा 
बैठे हो
 की 
आएगी गौरैया मुंडेर पे 
सुनो मै कहती हूँ 
पहले घर के बीच आँगन छोड़ो 
जो टूट गए है रिश्ते 
उन्हें जोड़ो। 
अम्मा को बोलो की 
वो अब फिर से 
आँचल के छाँव में रख कर 
बच्चो को लोरियाँ सुनाये। 
भाभी से कहो की 
वो अब फिर से डगरे में 
चावल ले कर छत पर बीने 
और वो प्यारी सी गीत गुनगुनाये 
 तब जाकर मै 
सोचूंगी 
आने को तेरे मुंडेर पर 
वो बीने चावल के दाने खाने को 
फुदक फुदक 
मटक मटक 
लचक लचक 
नहीं तो मुझे 
मिटना मंजूर  है
न कि किसी की जूठन खाना !  
                          
 
                                              
                                                    प्रदीप्त 

                                             



















Sunday, 14 May 2017

आधे- अधूरे के सभी पात्र आधे- अधूरे है


ज से ४ साल पहले रविन्द्र भवन में  "मोहन राकेश" कृत  नाटक आधे अधूरे मैंने देखा था। पर तब इस नाटक को लेकर मेरे मन के क्या भावनाये थी, वो धुंधली है।  तब से आज तक इस नाटक की ५ प्रस्तुति देख चूका हूं. पर ये नाटक जितनी बार देखता हू, हमेशा कुछ नया सा लगता है। और आज भारत भवन भोपाल  में आधे-अधूरे नाटक की प्रस्तुति देख रहा हूं। 
   १९६९ में मोहन राकेश जी ने ये नाटक लिख कर आने वाले युगों-युगों की व्यक्तिक और वैवाहिक जीवन की समस्या को शब्दों में पिरोया है। इस नाटक का नायक "अनिश्चित" है। क्यूंकि वह कोई एक व्यक्ति नहीं। 
   लेकिन नाटक की केन्द्र में स्त्री है. स्त्री को बीच में रख कर मोहन राकेश जी ने अपनी बात रखी है। 
  निर्देशक जयंत देशमुख जी के शब्दों में- "मैंने घर की एक दिवार को गिरा दी है ताकि दर्शक दीर्घा में बैठ कर लोग अपने आप को टटोल सके."
   जयंत दा की बात करे तो उन्होंने इस नाटक को मंच पर अपने सेट से ही जीवंत कर दिया था। ८ से १० घंटे में बने ये काल्पनिक सेट के पीछे मध्य प्रदेश नाट्य विधालय के स्टूडेंट की एक साधना है। जिसे महीनो लगे पूरा करने में। एक पढाई के दौरान ये सब सार्थक हो पाया है। मंच पर लाखो का सेट पुरानी अलमीरा, असली बेसिन और उसमे से आता पानी दीवारे पुताई के बाद भी पपरी सतही जैसी दिखाना, फिर डाइनिंग टेबल से लेकर टीवी तक पूरा एक आम घर की स्थिति बयां कर रही थी।  
   एक बात इस नाटक के माध्यम से सामने आई है, वो ये की जो जिंदगी में बहुत कुछ की तलाश में रहते है। उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। 
   हमेशा खुद को एक से झटक कर दूसरे से जोड़ लेने की कोशिश में सिर्फ खाली खानों को की देखने की आदत, इसे पूरा भरने की तलाश, जब की पूरा कोई नहीं। 
 महेंद्रनाथ (नवदीप ठाकुर) का दोस्त जुनेजा (जहाँगीर खान) उसकी पत्नी सावित्री (गरिमा मिश्रा) को कहता है , असल बात इतनी ही की महेंद्र की जगह इनमे से कोई भी होता तुम्हारी जिंदगी में तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करती की तुमने गलत आदमी से शादी कर ली है। और उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेन्द्र, कोई शिवजीत, कोई जुनेजा, कोई जगमोहन होता......... क्युकी तुम्हारे लिए जीने का मतलब है, कितना कुछ एक साथ हो कर कितना कुछ एक साथ पा कर कितना कुछ एक साथ ओढ़ कर जीना। 
    हम एक साथ इतनी चीजों को पा लेना चाहते है की अक्सर जो हाथ में होता है उसे भी गवां देते है। सावित्री की तरह। 

   चुनाव के एक क्षण में सावित्री ने महेन्द्रनाथ के साथ गाँठ बांध ली  और आगे चल कर अपने को भरा महसूस नहीं किया। 
   आधे-अधूरे नाटक में सभी पात्र अधूरे है।  महेन्द्रनाथ और सावित्री पति- पत्नी के अटूट बंधन में बंध कर भी अलग है। पूर्णता की तलाश में दौड़ रही स्त्री सावित्री अधूरे पुरुष महेन्द्रनाथ को स्वीकार नहीं कर पति है। ऐसा नहीं है की महेन्द्रनाथ सावित्री से प्यार नहीं करता पर अपनी मानसिक तंगदिली से जीने के कारण जख्मी है। 
   सावित्री महेन्द्रनाथ को निठल्ला, बेकार और हारा हुआ इंसान मानती है। जिसकी अपनी कोई अहमियत नहीं है। वो जो भी काम करता है जुनेजा के निर्णय पर ही करता है। इसलिए वह अपनी खोज अन्य पुरुषों में करती रहती है। जबकि महेन्द्रनाथ स्वंय भी अपने आप को बार-बार घिसने वाला रबड़ का एक टुकड़ा समझता है। अपने जमीर पर बार-बार चोट होते देख वह सावित्री को मरता-पीटता है। 
   आधुनिक दौड के पितृसतात्मक परिवेश में घर की आर्थिक बोझ उठाती हुई सावित्री जैसी भारतीय स्त्री की स्थिति को जीवंत मोहन राकेश जी ने नाटक में किया है। कामचोर पति, दिनभर मैग्जीन से फोटो काट कर दीवार पर चिपकाने वाला बेटा अशोक (जय पंजवानी), प्रेमी के साथ भागने वाली बिन्नी (अंजली सिंह) और जिद्दी छोटी लड़की किन्नी (अर्चना मिश्रा) से बना ये परिवार चलाते चलाते तनाव और घुटन से तंग आ चुकी सावित्री का अहं उसे बार-बार मुक्त करने को प्रेरित करता रहता है।  नाटक के एक दृश्य में सावित्री अपनी बड़ी देती से कहती है- हो सके तो जब तू अगली बार आये तो मैं ना मिलु, मेरे पास बहुत साल नहीं है जीने को।  पर जितने है, उन्हें मई इसी तरह निभाते हुए नहीं काटूंगी। मेरे करने से जो कुछ भी हो सकता था इस घर का, हो चुका आज तक। मेरी तरफ से अब अंत है उसका निश्चित अंत।  एक बेहतर जीवन की तलाश लिए सिंघानिया, जुनेजा, मनोज, जगमोहन के पास जाती है पर अंततः उसे पूर्णता है नहीं मिली। 
सभी पुरुष एक से है।  सबके सब एकसे  अलग-अलग मुखौटे पर चेहरा चेहरा एक ही!
महेन्द्रनाथ के बेरोजगारी के कारण सावित्री को नौकरी करना पड़ता है।  नौकरी करते समय सावित्री को कई पुरुषों से मिलजुल कर रहना पड़ता है। शायद महेंद्रनाथ अपने आपको उनके सामने एक जिल्लत भरी नजरो से देखता है, इसी कारण जब भी सावित्री अपने दोस्तों को घर पर लाती वो गायब रहता था।  सावित्री हमेसा किसी नए व्यक्ति को घर लाया करती है।  महेन्द्रनाथ उसे हमेसा छेड़ता रहता है। फिर भी सावित्री को अपने बेटे अशोक की नौकरी दिलवाने हेतु अपने बॉस सिंघानिया से अनैतिक सम्बन्ध भी रखती है।  बेटे के पूछने पर जवाब देती है- " अगर कुछ खास लोगो को साथ सम्बन्ध बनाकर रखना चाहती हूं तो अपने लिए नहीं तुम लोगो के लिए!  
   नाटक के एक दृश्य में एक चीज साफ़ झलकती है की इस घर में रह रहे लोगो को बस आवारेपन की ही शिक्षा मिली है।  अपनी माँ सावित्री की चरित्रहीनता के कारण बिन्नी का भी चरित्र बिगड जाता है। उसका बिखराव भरा व्यक्तित्व अपनी माँ से इन शब्दों में व्यक्त करती है- " वो कौन सी चीज है वह इस घर जी जिसे लेकर बार-बार मुझे हीन किया जाता है। तुम बता सकती हो माँ, की क्या चीज है वह? और कहाँ है वह? इस घर की खिडकियों दरवाजो में? छत में? दीवारों में? तुम में, डैडी में? किन्नी में? अशोक में? कहाँ छिपी है।  वह मनहूस चीज जो वह कहता है की मैं इस घर से अपने अंदर लेकर गयी हूं?
   मध्यवर्गीय सुविधा भोग ने लोगो जो किस गर्हित स्थिति में डाल दिया है। सावित्री के चरित्र में देखा जा सकता है। सावित्री अपने लिए एक पूरा आदमी चाहती है। मतलब यह की इस सुविधा भोग के पीछे वह अपनी अस्मिता तक खो बैठी और अंत में उसे वही अधूरा महेन्द्रनाथ मिला और भी वह लंगडाते आते हुए टूटे व्यक्ति के रूप में। सुविधाभोगिनी नारी का इससे भयंकर परिणाम और क्या हो सकता है। 

सावित्री : गरिमा मिश्रा
बिन्नी : अंजली सिंह
किन्नी : अर्चना मिश्रा
अशोक : जय पंजवानी
महेन्द्रनाथ : नवदीप ठाकुर
जगमोहन : गुरप्रीत सिंह
सिंघानिया : दिनेश बाघवा
जुनेजा : जहाँगीर खान
काला सूट : अनुराग ठाकुर
नाटक : आधे-अधूरे
लेखक : मोहन राकेश
निर्देशक : जयंत देशमुख


बेटे- बेटियाँ और संस्कार

स माज जहाँ आज कल बेटे- बेटियों को सामान अधिकार देने की बात कर रहा है।  वही सिर्फ बेटो की चाह रखने वाले इस बात से अपना मुुुह मोड़ रहा है। प...